ढकोसला नहीं तो क्या है ये....
राजनीति कभी-कभी कितनी भद्दी और कितनी ओछी हो सकती है...इसका नमूना रेल मंत्री के इस्तीफे के प्रकरण ने दिखा दिया। अब घर में कदम रखते ही हाथ शर्ट के बटन के बजाय सीधे रिमोर्ट कंट्रोल की तरफ चला जाता है। सोमवार शाम को भी यहीं हुआ.....टीवी खोलते ही प्रधानमंत्री के गठबंधन की मजबूरी का रोना हर तरफ ब्रेकिंग न्यूज बन के भुकभुका रहा था। हालांकि हम सब को पता था की होना यहीं है पर दिनेश त्रिवेदी के तेवर से थोङी आस जरूर थी की चलो इस शह-मात के खेल में कोई तो सीना ठोक के खङा है....और जिसकी चाल ममता पर भारी पङ रही है।
मीडिया वाले भी टकटकी लगाए बैठे थे की क्या पता खिचङी बनती जा रही इस खबर पर त्रिवेदीजी के तेवर की छौंक से कोई मसालेदार रिसेपी ही मिल जाए ताकि कुछ दिनो के हुक्का पानी का जुगाङ हो पाए। लेकिन हुआ ठीक उल्टा। रविवार शाम जब पूरा देश खबरिया चैनलों को छोङ नियो स्पोर्टस पर नजरें गङाये बैठा था....ममता दिल्ली कूच कर गयी। फिर तो त्रिवेदीजी को भी याद आ गया की संचार क्रांति के इस महायुग में शायद संवाद की कमी हो गयी थी। दिनेश त्रिवेदी ने बुलेट ट्रेन चलाने की बात कही थी पर वो बुलेट उन्हे ही लग गया। कनफ्यूजन के बादल छंटते ही उनका इस्तीफा भी आ गया। आखिर मरता क्या ना करता। पर गलती दिनेश त्रिवेदी की नहीं है...दरअसल रेलवे की किस्मत ही खराब है। ये एक ट्रेंड सा बन गया है की जो भी यहां आता है वो यही सोचता है, भाङे ना बढाना ही उसकी उपलब्धि है। बस सारी समस्या की जङ यहीं से शुरू हो जाती है। उन्होनें कुछ हट के करने की सोची, सो अंजाम तो भुगतना ही था।
पर इस सब के बावजूद ताज्जुब होता है यूपीए पर। ये कैसी सरकार चला रहे है मनमोहन जी आप....और इतनी मजबुरी आखिर क्यूं। नब्बे के दशक का हीरो आज क्यो इतना लाचार है ? जिसे पहले आपने रेलवे विभाग देने से इंकार कर दिया था अब उसी के नाम पर आपको कोई परेशानी नहीं !! परमाणु संधि के मुद्दे पर जो तेवर आपने वाम दलों के साथ दिखाए थे, वो तेवर क्यों ठंडा पर गया ? वो जोश कहीं अमेरिका का दबाव तो नहीं था....ये हम नहीं कह रहे पर अब लोग कहेंगे। ये क्या अजीब बात नहीं है की रेल मंत्री को एक बजट....या रेलवे के विजन को लेकर अपनी बात रखने का हक नहीं है। हमारे लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टीयों की अहमियत ज्यादा है...बजाय प्रतिनीधी के। ये इसी का एक और उदाहरण है। हमारे लोकतंत्र में जनता की नहीं पार्टी आलाकमान की चलती है। ममता बैनर्जी कहती हैं जनरल या स्लीपर श्रेणी का किराया बढना उन्हें मंजुर नहीं है...शहरी लोग दूर तक रोज दफ्तर जाते हैं, और दो पैसे प्रति किलोमीटर की बढोतरी से भी इसकी रकम खासी बढ जाती है। पर ममता जी अगर रेलवे और आम लोगों का इतना ही ख्याल था तो इसे छोङकर कोलकाता जाने की क्या जरूरत थी। और क्या तेल, गैस, सब्जी, राशन आपके आम जनता की नहीं है। इसपर तो कभी ऐसे तेवर नहीं दिखाये। बजट से ठीक कुछ दिनों पहले रेलवे में मालढुलाई के रेट कुछ बढे तो उस पर कोई हंगामा नहीं बरपा। क्या इस बढोतरी का असर आम जनता पर नहीं होगा? पर चुकी उसकी चर्चा नहीं हुई। किसी ने किसी ने कोई हिसाब किताब भी नहीं लगाया तो आपको भी कोई दिक्कत नहीं हुई। अरे इसकी चर्चा तो ज्यादा होनी चाहिए थी...रेल मंत्री का इस्तीफा तो उसी वक्त ले लेना चाहिए था। क्योंकि इस बढोतरी का असर तो उन पर भी होने जा रहा है जिन्हे ट्रेन से सफर नहीं करना है। लेकिन बजट तो पूरा देश देख रहा था...इसलिए इस मुद्दे पर अपनी तुनकमिजाज को दिखाना जरूरी था।
अंग्रेजी में एक शब्द है “commuters” जो प्राय: उन लोगो के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो रोज अपने छोटे जगहो या कस्बो से शहर की ओर काम के लिए आते हैं और फिर शाम ढले वापस लौट जाते हैं। वाशिंगटन और लंदन जैसे शहरो में तो 200-300 किलोमीटर तक का सफर तय कर के लोग आते हैं। ये रोज का नियम है। और इसका एक बङा जरिया वहां की रेलवे है। पर हमारे यहां अगर इतनी दूर जाना हो तो पता नहीं कितने घंटे लग जाए। मुझे दिल्ली के पास के शहर जैसे मेरठ, हापुङ आदि से रोजाना नौकरी के लिए राजधानी आने वाले लोगों के अनुभव है, जा के देखिए की कितने प्रतिशत लोग इस के लिए ट्रेनों पर निर्भर हैं। राज्य परिवहन और निजी बसों के प्रति लोग ज्यादा आश्वस्त हैं बजाय भारतीय रेल के। एक तो ट्रेनों की संख्या कम है और जो हैं उनकी लेट-लतीफी ऐसी की बङे-बङे सरकारी अफसर लजा जाएं। सुपरपावर बनने जा रहे हमारे देश में रेलवे की हालत जो है वो किसी से छुपी नहीं है। अभी कुछ दिनो पहले फेसबुक पर किसी ने तस्वीर डाली थी ट्रेनों में दिये जाने वाले खाने की। हमारे बर्थ पर खाना जिस ट्रे में रख कर लाया जाता है वो सब ट्रेन की टाँयलेट के पैन पर रखी हुई थी।
साफ सफाई औऱ सुरक्षा से जुङी औऱ भी कई विषय हैं जिस पर लम्बी बहस की जा सकती है। कहीं पढा की अब भी लगभग बीस हजार मानव रहित रेलवे क्रासिंग फाटक देश में मौजुद है....इसका निदान क्यों नहीं हो पाया...पता नहीं। ए.सी डब्बो को छोङ दिजिए तो जेनरल और स्लीपर की हालत तो ऐसी हो जाती है मानो इसमें ममता बैनर्जी की आम जनता नहीं बल्कि भेङ-बकङियां हैं। बजट में हिसाब लगाया गया है की रेलवे के ‘ मेकओवर ’ के लिए 14लाख करोङ की जरूरत है। पर पैसे से ठनठन गोपाल भारतीय रेलवे के पास 14लाख करोङ कहां से आएंगे, इसका जवाब किसी के पास नहीं हैं।
विश्व की चौथी सबसे बङी रेल नेटवर्क रोजगार का भी एक बङा जरिया हैं। आज भी सबसे ज्यादा रोजगार रेलवे ही मुहैया कराती हैं। लेकिन अपनी हालत पर रो भी सबसे ज्यादा रेलवे ही रही है। बजट के बाद लालू यादव की प्रतिक्रिया देखी। भन्नाये हुए थे। कह रहे थे की उनके राज में उन्होने रेलवे को नई गरिमा दी थी। सच भी है.....आइआइएम और हावार्ड में जाकर रेलवे की महान गाथा भी उन्होनें सुनेई थी। सब कुछ ठीक था।.....पर लालू जी शक होता है की जब कुछ ठीक ही था तो आखिर दो सालो में ही ऐसा क्या हुआ की पूरा रेलवे ही डीरेल हो गया है। ये सवाल अब भी कोई नहीं पूछ रहा है।
लेकिन ये तो तय है की इस पूरे कांड ने यूपीए की साख पर एक और बट्टा लगाया है। रेल भाङे से इतनी तफलीक (तकलीफ) थी...तो बढे हुए भाङे को वापस लेने की बात की जा सकती थी। ये एक रास्ता हो सकता था....पर ममता जी आपने तो रेलवे मंत्री को ही वापस बुला लिया। ये नाटक क्यों ? आप शायद भूल गयी हैं...की ये पब्लिक है...सब जानती है। इसलिए भाङे का झुनझुना पकङाने का काम छोङिये।..... अब और भला हम क्या कहें......
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